Tuesday, October 26, 2010

कब तक तुमसे दूर रहूं मैं


98.


कब तक तुमसे दूर रहूं मैं ,
कब तक घुटता जाऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।

मेरा दर्प मिटेगा मेरी व्यथा बढे़गी
सर पर अपने होने की तुच्छता चढ़ेगी
तभी हृदय की नीरवता नव कथा गढ़ेगी
तब तुमको मैं खिंचे तंतु की
तनकर तान सुनाऊं
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।

मानसरोवर-से मन का जल निर्मल होगा
तन का रोम-रोम रुचिकर, शुचि-शतदल होगा
मधुकर-गुंजित मानस में मधु प्रतिपल होगा
अब क्या क्या होगा प्रियवर !
क्या तुम्हें बताऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।

नयन किसी के देख रहे हैं किसे गगन से ?
मंत्र-मुग्ध नक्षत्र निहारें किसे मगन से ?
घर आंगन सब छोड़ रहा हूं बड़ी लगन से -
कौन बुलाता है मुझको
अब किसे बताऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।
20.05.10

Friday, July 16, 2010

जागृत स्वर्ग बने अब भारत।




जागृत स्वर्ग बने अब भारत।

चित्त जहां भयशून्य निरन्तर
आत्मगर्व से उन्नत हों सर
मुक्त ज्ञान हो, सुमति परस्पर
नहीं दीन , न हीन , न आरत।
जागृत स्वर्ग बने अब भारत।

घर-आंगन दीवार रहित हों
शब्द हृदय के सत्त्व सहित हों
सरस सार्थक सतत् सरित हों
बांटें सभी दिशा में अमृत।
जागृत स्वर्ग बने अब भारत।

आचारों से फलित हों उपवन
पौरुष के उत्तम हों साधन
रोपित हर्ष ,करें क्षण प्रतिक्षण
सबके हित में सब हों अभिरत।
जागृत स्वर्ग बने अब भारत।


17.05.10

गीतांजली: 35 : मूल बांगला : रवीन्द्रनाथ टैगोर

चित्त जेथा भयशून्य ,उच्च जेथा शिर ,
ज्ञान जेथा मुक्त जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवसशर्वरी
बसुधारे राखे नाइ खण्ड खण्ड क्षुद्रकरि,
जेथा वाकय हृदयेर उत् समुखहते
उच्छ्वसिया उठे , जेथा निर्वारित स्रोते
दशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय
अजस्र सहसबिध चरितार्थताय-

जेथा तुच्छ आचारेर मरुबालुराशि
बिचारेर स्रोतःपथे फेले नाइ ग्रासि,
पौरुषेरे करे नि शतधा-नित्य जेथा
तुमि सर्व कर्म चिन्ता आनंदेर नेता-

निज हस्ते निर्दय आधात करि पितः,
भारतेर सेइ स्वर्गे करो जागरित।

35

Where the mind is without fear
and the head is hels high ;
Where knowlege is free;
Where the world has not been broken up into fragments
by narrow domestic walls;
Where words come out from the depth of truth ;
Where tireless striving streches its arms towards perfection ;
Where the clear stream of reason has not lost its way
into the dreary desert sand of dead habit;
Where the mind is led forward by thee
into ever-widening thought and action---
Into that heaven of freedom ,
my Father ,
let my country awake.
Englidh Translation by Robindranath Taigore.

Wednesday, June 2, 2010

बनकर गीत सुधारस आना




जब नीरस हो जाए जीवन ,
जब मिठास खो दे मेरा मन ,
तुम करुणा-धारा बन जाना
-बनकर गीत सुधारस आना ।।

कर्मों के कोलाहल काले,
मन के मछुआरों ने डाले-
पलपल मछलीवाले जाले,
पर तुम मेरा साथ निभाना
दबे पांव चुपके से आना।।
-बनकर गीत सुधारस आना।।

पड़ा दीन-हीन गुरु गौरव,
निर्बल,निर्जन,निष्क्रिय,नीरव,
मारक है पीड़ा का रौरव,
शब्दों की संजीवनी लाना।
मरता हूं तुम मुझे जिलाना।।
-बनकर गीत सुधारस आना।।


धूल हो गई अतुल कामना,
हुई अपाहिज वीर-वासना,
विफल हो गई स्वार्थ-साधना,
प्रिय! बिखरे स्वर पुनः सजाना।
तार-तार वीणा पर गाना।।
-बनकर गीत सुधारस आना।।
23-24.05.10

Monday, May 24, 2010

मत खेंच लेना ओ अभागों




सच झूठ भरे स्वार्थ से या अहंकार से ,
मत खेंच लेना ओ अभागों हाथ प्यार से ।

जब तुम चलो धरती चले ये आसमां हिले ,
जब तुम हंसों तो पत्थरों पै फूल भी खिले ,
तुम छा गए तो रोशनी सूरज की कम हुई-
ऐसे विचार सोचो तो क्यों तुमको हैं मिले ?
तुम किससे ऊंचा उठ रहे ,तुम किसको ठग रहे ?
देखो नज़र उठा के जरा इस उतार से ।

मंदिर बनाते हो बहुत ऊंचे बहुत विशाल ,
लेकिन किसीके सुख का क्या करते हो कुछ खयाल ,
अपनी बुराइयों से जागना तो बहुत दूर -
तुम तो बना रहे हो बनावट को अपनी ढाल।
अपने हष्दय से पूछो हो किसके विरुद्ध तुम !
क्यों काटते अपना गला अपनी कुठार से ?

जब तक अहं के अस्त्र हैं तब तक कहां का ज्ञान ?
तुम रोज चढ़ाओगे अपनी छूरियांे पै सान ,
ऐसा पढ़ाएगी ये पाठ मद की दलाली -
‘चुन चुन के मान दो ,करो गिन-गिन के सौ अपमान
जो सच कहे निर्भय रहे शुभ सोचता रहे ,
सातों जनम न उबरोगे उसके उधार से ।
211095

पेंटिंग: तरु दत्त

Saturday, May 8, 2010

मैं केवल अभिव्यक्ति तुम्हारी।

भारतीय गीतों के राजऋषि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को समर्पित गीत




मैं केवल अभिव्यक्ति तुम्हारी।

मेरे अंग अंग को छूकर
क्या करते हो तुम प्राणेश्वर !
नवगति ,नवमति, नवरति भरकर-
क्यों व्याकुल अनुरक्ति तुम्हारी ?
मैं केवल अभिव्यक्ति तुम्हारी।

मेरा हृदय निवास तुम्हारा
मेरा सुख विश्वास तुम्हारा
हर स्पंदन हास तुम्हारा
रोम रोम आसक्ति तुम्हारी।
मैं केवल अभिव्यक्ति तुम्हारी।

ध्यान तुम्हीं ,अवधान तुम्हीं हो
कर्मों में गतिमान तुम्हीं हो
शुभ,सद,् शिव, शुचि गान तुम्हीं हो
मेरा साहस , शक्ति तुम्हारी।
मैं केवल अभिव्यक्ति तुम्हारी।

द्वेष-मुक्त ,निष्कलुष बना दो
मुझे प्रेममय मनुष बना दो
धरती पर ही नहुष बना दो
नहीं चाहिए मुक्ति तुम्हारी।
मैं केवल अभिव्यक्ति तुम्हारी।
28.04.10


नहुष: जब इंद्र शापग्रस्त होकर अपदस्थ हुए तो धरती के नीतिवान प्रतापी राजा नहुष को इंद्र के स्थान पर इंद्रासन पर बैठाया गया था। इंद्र के लौटने पर वे स्वर्ग से पुनः धरती पर लौटाए गए। परन्तु सिद्धों ने उन्हें बीच में ही रोक दिया। वे त्रिशंकु कहलाए। न इधर के रहे न उधर के। घर के न घाट के। बाद में मामला निपट गया।

*फोटो में पंजाब-कोकिला अमृता प्रीतम हैं

Wednesday, April 28, 2010

एक पल तो बैठने दो आज अपने पास।

सन् 2011 कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 150 वीं जन्मशती है। गीतांजली पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला। गीतांजली गीतो की जिन्दगी का शिलालेख है। कबीर के दर्शन और रवीन्द्र की प्रार्थनाओं से सजी गीतांली को तथा कवीन्द्र रवीन्द्र के प्रति प्रणाम निवेदित करते हुए यह गीत-पुष्प अर्पित कर रहा हूं।




एक पल तो बैठने दो आज अपने पास।


स्थगित सब आज कर दूं काम सारे
भूल जाऊं स्वजन परिजन नाम सारे
तुम हो सम्मुख तो भले हों वाम सारे
आज जी-भर देखने को बावली है आस
एक पल तो बैठने दो आज अपने पास।

कंटकों के पथ मिले , चलता रहा
भीड़ का एकांत भी छलता रहा
मैं दिया-सा रात भर जलता रहा
टिमटिमाता था अंधेरे में अटल विश्वास
एक पल तो बैठने दो आज अपने पास।

सागरों की लहर में मैं डूबा उतराया
टूटी नौका से कभी कोई न तट आया
किन्तु अपने आप फागुन कैसे ये छाया
हैं समर्पित गीत सारे तुमको ओ मधुमास !
एक पल तो बैठने दो आज अपने पास।

28.04.10

Wednesday, March 31, 2010

जोड़ो तिनका तिनका

है रात भी गुमसुम गुमसुम
लो रहा सूख मुंह दिन का ।
हर सुबह किरन से बोली
अब जोड़ो तिनका तिनका ।

क्यों सरक रहीं है गलियां ?
क्यों गांव किनारा करते ?
क्यों आंगन आंख चुराते ?
क्यों पांव बिखरते चलते ?
क्यों घाट हैं सूने सारे
यूं बाट तकें वे किनका ?
अब जोड़ो तिनका तिनका।

हर अमराई निर्जन है
सब पनधट के पन रीते।
वो गांवों क़स्बोंवाले
सब चैपाली दिन बीते।
अब कंक्रीट का खाता
बस मात्र आंकड़े गिनता ।
अब जोड़ो तिनका तिनका।।

अब चलो उगाएं सपने
सस्नेह सरस धन बोकर।
हम अधर धरें धरती पर
हम बहें नदी से होकर।
दो कूल तरलता जोड़ें
हर घाट स्वजन परिजन का।
तो जोड़ो तिनका तिनका।।


271009-090310