Wednesday, March 31, 2010

जोड़ो तिनका तिनका

है रात भी गुमसुम गुमसुम
लो रहा सूख मुंह दिन का ।
हर सुबह किरन से बोली
अब जोड़ो तिनका तिनका ।

क्यों सरक रहीं है गलियां ?
क्यों गांव किनारा करते ?
क्यों आंगन आंख चुराते ?
क्यों पांव बिखरते चलते ?
क्यों घाट हैं सूने सारे
यूं बाट तकें वे किनका ?
अब जोड़ो तिनका तिनका।

हर अमराई निर्जन है
सब पनधट के पन रीते।
वो गांवों क़स्बोंवाले
सब चैपाली दिन बीते।
अब कंक्रीट का खाता
बस मात्र आंकड़े गिनता ।
अब जोड़ो तिनका तिनका।।

अब चलो उगाएं सपने
सस्नेह सरस धन बोकर।
हम अधर धरें धरती पर
हम बहें नदी से होकर।
दो कूल तरलता जोड़ें
हर घाट स्वजन परिजन का।
तो जोड़ो तिनका तिनका।।


271009-090310

3 comments:

  1. अच्छी कविता है ... आज के ज़माने में बदल रही है ज़िन्दगी ... तो ज़रूरत है एकबार फिर से अपने जड़ो से जुड़ने की !

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  2. है रात भी गुमसुम गुमसुम
    लो रहा सूख मुंह दिन का ।
    हर सुबह किरन से बोली
    अब जोड़ो तिनका तिनका ।

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  3. पहली बार आना हुआ पर बहुत अच्छा लगा. शब्द जीवंत हैं. भाषा में लय और गति है जीवन की और मन में कुछ अनबुझे से सवाल. क्यों ये सब कुछ पीछे छूट रहा है?बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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