आज गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर की एक सौ पचावीं सालाना जयंती का अंतिम दिवस दोनों देशों की राजधानियों में गर्व से मनाया गया।
कल से उनकी एक सौ इक्यावनवीं जयती आरंभ होगी।
इस अवसर पर प्रस्तुत है गीतांजली के गीतों का हिन्दी गीतों में छाया रूपांतरण ।
इन गीतों को आपनं पहलं भी भरपूर प्यार दिया।
अगर संभव हुआ तो इन सबका संकलन आपके हाथों में होगा।
दुआ करें कि यह संभव हो।
1. एक झपकी कर गई सब साधनाएँ व्यर्थ,
दिन दहाड़े पास आकर धैर्य न तोलो!
‘शांत, चुप बैठे रहोगे,’- झूठ मत बोलो।।
‘पूजोत्तर परिसाद जो मिल जाए पा लूंगा।’
सादगी सच्ची ही है तो, साथ मत डोलो।।
मलिन वस्त्रों का बनाया स्वाँग सुन्दर है,
ओढ़कर दयनीयता मुख-द्वार ना खोलो।।
सबसे सुन्दर कोना चुनकर जमके बैठे हो,
मेरे घर में अतिथि हो, स्वामित्व ना घोलो।।
साधु के परिधान में सब चोर आते हैं-
कैसे चिन्तामुक्त सो पाऊँ, हो तुम जौ लौं।।
एक खटका भी हो तो लगता है कि तुम हो,
जागते हो क्यों अहिर्निश? पहर भर सो लो।।
एक झपकी कर गई सब साधनाएँ व्यर्थ,
लुट गया सब, तब जगाकर बोले-‘मुंह धो लो।।
21.03.12
2. सागर-मँथन से निकले ना जलजात
जाने कितने युग बीते हैं, हुई नहीं बरसात।
केवल लू, चिर तपन, विकलता, अँधड़, झँझावात।।
सूना है आकाश भयावह, कहीं नहीं बादल,
धूल खेलती हवा करे क्या, अब सावन की बात।।
दूर दूर तक चकाचैंघ की सूरत नहीं चमकती,
काली साँवल नहीं आजकल, पीली पीली रात।।
कोई शंकर सन्नाटे का शायद ताँडव करता,
कहीं नहीं डमरू की गड़गड़, ना पैरों की घात।।
अमृत क्या, विष के प्याले भी अब पीना मुश्किल,
सब निकला सागर-मँथन से, निकले ना जलजात।।
15.02. 12
प्रतिक्रिया अवष्य दें....
संग्रह प्रकाषन की दुआ के साथ
संग्रह प्राप्त करने के लिए पते ई मेल करें...
बहुत सुन्दर...........
ReplyDeleteआपकी मनोकामना अवश्य पूरी हो.....
अनु
यह कार्य वास्तव में सराहनीय है. गुरुदेव की कुछ रचनाओं का हिंदी काव्यानुवाद करने का दुस्साहस मैंने भी किया है. संग्रह मिल सका तो उसकी समीक्षा अपने ब्लॉग दिव्यनर्मदा.blogspot.com और फेसबुक प्रौष्ठों पर करूँगा। एक अनुवाद संलग्न, कृपया, पोस्ट कर दें. मुझे पोस्ट करने की विधि नहीं दिखी।
ReplyDeleteगुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने।
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
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बहुत बेहतर जानकारी धन्यवाद
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