Tuesday, October 26, 2010

कब तक तुमसे दूर रहूं मैं


98.


कब तक तुमसे दूर रहूं मैं ,
कब तक घुटता जाऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।

मेरा दर्प मिटेगा मेरी व्यथा बढे़गी
सर पर अपने होने की तुच्छता चढ़ेगी
तभी हृदय की नीरवता नव कथा गढ़ेगी
तब तुमको मैं खिंचे तंतु की
तनकर तान सुनाऊं
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।

मानसरोवर-से मन का जल निर्मल होगा
तन का रोम-रोम रुचिकर, शुचि-शतदल होगा
मधुकर-गुंजित मानस में मधु प्रतिपल होगा
अब क्या क्या होगा प्रियवर !
क्या तुम्हें बताऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।

नयन किसी के देख रहे हैं किसे गगन से ?
मंत्र-मुग्ध नक्षत्र निहारें किसे मगन से ?
घर आंगन सब छोड़ रहा हूं बड़ी लगन से -
कौन बुलाता है मुझको
अब किसे बताऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।
20.05.10

9 comments:

  1. नयन किसी के देख रहे किसे गगन से ?
    मंत्र-मुग्ध नक्षत्र निहारें किसे मगन से ?
    घर आंगन सब छोड़ रहा हूं बड़ी लगन से -
    कौन बुलाता है मुझको
    अब किसे बताऊं ?
    मानभरी हर हार मानकर
    हार तुम्हें पहनाऊं ।।

    बहुत सुंदर भावमयी रचना .... आभार

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  2. कब तक तुमसे दूर रहूं मैं ,
    कब तक घुटता जाऊं ?
    मानभरी हर हार मानकर
    हार तुम्हें पहनाऊं ।।

    मुग्ध कर देने वाली रचना ! लाजवाब !

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  3. बहुत सुंदर...मुग्ध कर देने वाली रचना

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  4. मानसरोवर-से मन का जल निर्मल होगा
    तन का रोम-रोम रुचिकर, शुचि-शतदल होगा
    मधुकर-गुंजित मानस में मधु प्रतिपल होगा
    अब क्या क्या होगा प्रियवर !
    क्या तुम्हें बताऊं ?


    Nice happy dipavali

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  5. आदरणीय आर. वेणुकुमार जी
    प्रणाम !
    आपके ब्लॉग की बहुत सारी रचनाएं पढ़ कर असीम आनन्दानुभूति हुई ।

    प्रस्तुत गीत भी बहुत सुंदर और हृदयग्राही है ।

    कृपया , नई रचनाएं शीघ्र लगाएं … ताकि श्रेष्ठ काव्य पढ़ने की प्यास को तृप्ति मिलती रहे … आभार !
    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  6. Bhahut pyari rachana...dheere se hriday me utar gayi..aabhar

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  7. मानसरोवर-से मन का जल निर्मल होगा
    तन का रोम-रोम रुचिकर, शुचि-शतदल होगा
    मधुकर-गुंजित मानस में मधु प्रतिपल होगा
    अब क्या क्या होगा प्रियवर !
    क्या तुम्हें बताऊं ?
    मानभरी हर हार मानकर
    हार तुम्हें पहनाऊं ।।

    waah waah

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