
सच झूठ भरे स्वार्थ से या अहंकार से ,
मत खेंच लेना ओ अभागों हाथ प्यार से ।
जब तुम चलो धरती चले ये आसमां हिले ,
जब तुम हंसों तो पत्थरों पै फूल भी खिले ,
तुम छा गए तो रोशनी सूरज की कम हुई-
ऐसे विचार सोचो तो क्यों तुमको हैं मिले ?
तुम किससे ऊंचा उठ रहे ,तुम किसको ठग रहे ?
देखो नज़र उठा के जरा इस उतार से ।
मंदिर बनाते हो बहुत ऊंचे बहुत विशाल ,
लेकिन किसीके सुख का क्या करते हो कुछ खयाल ,
अपनी बुराइयों से जागना तो बहुत दूर -
तुम तो बना रहे हो बनावट को अपनी ढाल।
अपने हष्दय से पूछो हो किसके विरुद्ध तुम !
क्यों काटते अपना गला अपनी कुठार से ?
जब तक अहं के अस्त्र हैं तब तक कहां का ज्ञान ?
तुम रोज चढ़ाओगे अपनी छूरियांे पै सान ,
ऐसा पढ़ाएगी ये पाठ मद की दलाली -
‘चुन चुन के मान दो ,करो गिन-गिन के सौ अपमान
जो सच कहे निर्भय रहे शुभ सोचता रहे ,
सातों जनम न उबरोगे उसके उधार से ।
211095
पेंटिंग: तरु दत्त