
98.
कब तक तुमसे दूर रहूं मैं ,
कब तक घुटता जाऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।
मेरा दर्प मिटेगा मेरी व्यथा बढे़गी
सर पर अपने होने की तुच्छता चढ़ेगी
तभी हृदय की नीरवता नव कथा गढ़ेगी
तब तुमको मैं खिंचे तंतु की
तनकर तान सुनाऊं
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।
मानसरोवर-से मन का जल निर्मल होगा
तन का रोम-रोम रुचिकर, शुचि-शतदल होगा
मधुकर-गुंजित मानस में मधु प्रतिपल होगा
अब क्या क्या होगा प्रियवर !
क्या तुम्हें बताऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।
नयन किसी के देख रहे हैं किसे गगन से ?
मंत्र-मुग्ध नक्षत्र निहारें किसे मगन से ?
घर आंगन सब छोड़ रहा हूं बड़ी लगन से -
कौन बुलाता है मुझको
अब किसे बताऊं ?
मानभरी हर हार मानकर
हार तुम्हें पहनाऊं ।।
20.05.10